वर्ष भर कांता-विरह के
शाप में दुर्दिन बिताता।
‘मेघ’ जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
था दिया अभिशाप अलका-
ध्यक्ष ने जिस यक्षवर को,
वर्ष भर का दण्ड सहकर
वह गया कब का स्वघर को
प्रेयसी को एक क्षण उर से
लगा सब कष्ट भूला,
किन्तु शापित यक्ष तेरा
रे महाकवि जन्म-भर को!
रामगिरि पर चिर विधुर हो
युग-युगान्तर से पड़ा है,
मिल न पाएगा प्रलय तक
हाय, उसका श्राप त्राता।
‘मेघ’ जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देख मुझको प्राण-प्यारी
दामिनी को अंक में भर
घूमते उन्मुक्त नभ में
वायु के मृदु-मन्द रथ पर,
अट्टहास-विहास से मुख-
रित बनाते शून्य को भी
जन तुखी भी क्षुब्ध होते
भाग्य सुख मेरा सिहाकर;
प्रयणिनी भुज-पाश से जो
है रहा चिरकाल वंचित,
यक्ष मुझको देख कैसे
फिर न दुख में डूब जाता।
‘मेघ’ जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देखता जब यक्ष मुझको
शैल-श्रृंगों पर विचरता,
एकटक हो सोचता कुछ
लोचनों में नीर भरता,
यक्षिणी को निज कुशल-
संवाद मुझसे भेजने की
कामना से वह मुझे उठ
बार-बार प्रणाम करता;
कनक विलय-विहीन कर से
फिर कुटज के फूल चुनकर
प्रीति से स्वागत-वचन कह
भेंट मेरे प्रति चढ़ाता।
‘मेघ’ जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
पुष्करावर्तक घनों के
वंश का मुझको बताकर,
कामरूप सुनाम दे, कह
मेघपति का मान्य अनुचर
कण्ठ कातर यक्ष मुझसे
प्रार्थना इस भाँति करता –
‘जा प्रिया के पास ले
सन्देश मेरा, बन्धु जलधर!
वास करती वह विरहिणी
धनद की अलकापुरी में,
शम्भु शिर-शोभित कलाधर
ज्योतिमय जिसको बनाता।
‘मेघ’ जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
यक्ष पुनः प्रयाण के अनु-
कूल कहते मार्ग सुखकर,
फिर बताता किस जगह पर
किस तरह का है नगर, घर,
किस दशा, किस रूप में है
प्रियतमा उसकी सलोनी,
किस तरह सूनी बिताती
रात्रि, कैसे दीर्घ वासर,
क्या कहूँगा, क्या करूँगा,
मैं पहुँचकर पास उसके;
किन्तु उत्तर के लिए कुछ
शब्द जिह्वा पर न आता।
‘मेघ’ जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
मौन पाकर यक्ष मुझको
सोचकर यह धैर्य धरता,
सत्पुरुष की रीति है यह
मौन रहकर कार्य करता,
देखकर उद्यत मुझे
प्रस्थान के हित, कर उठाकर
वह मुझे आशीष देता-
‘इष्ट देशों में विचरता,
हे जलद, श्रीवृद्धि कर तू
संग वर्षा-दामिनी के,
हो न तुझको विरह दुख जो
आज मैं विधिवश उठाता!’
‘मेघ’ जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
शाप में दुर्दिन बिताता।
‘मेघ’ जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
था दिया अभिशाप अलका-
ध्यक्ष ने जिस यक्षवर को,
वर्ष भर का दण्ड सहकर
वह गया कब का स्वघर को
प्रेयसी को एक क्षण उर से
लगा सब कष्ट भूला,
किन्तु शापित यक्ष तेरा
रे महाकवि जन्म-भर को!
रामगिरि पर चिर विधुर हो
युग-युगान्तर से पड़ा है,
मिल न पाएगा प्रलय तक
हाय, उसका श्राप त्राता।
‘मेघ’ जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देख मुझको प्राण-प्यारी
दामिनी को अंक में भर
घूमते उन्मुक्त नभ में
वायु के मृदु-मन्द रथ पर,
अट्टहास-विहास से मुख-
रित बनाते शून्य को भी
जन तुखी भी क्षुब्ध होते
भाग्य सुख मेरा सिहाकर;
प्रयणिनी भुज-पाश से जो
है रहा चिरकाल वंचित,
यक्ष मुझको देख कैसे
फिर न दुख में डूब जाता।
‘मेघ’ जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देखता जब यक्ष मुझको
शैल-श्रृंगों पर विचरता,
एकटक हो सोचता कुछ
लोचनों में नीर भरता,
यक्षिणी को निज कुशल-
संवाद मुझसे भेजने की
कामना से वह मुझे उठ
बार-बार प्रणाम करता;
कनक विलय-विहीन कर से
फिर कुटज के फूल चुनकर
प्रीति से स्वागत-वचन कह
भेंट मेरे प्रति चढ़ाता।
‘मेघ’ जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
पुष्करावर्तक घनों के
वंश का मुझको बताकर,
कामरूप सुनाम दे, कह
मेघपति का मान्य अनुचर
कण्ठ कातर यक्ष मुझसे
प्रार्थना इस भाँति करता –
‘जा प्रिया के पास ले
सन्देश मेरा, बन्धु जलधर!
वास करती वह विरहिणी
धनद की अलकापुरी में,
शम्भु शिर-शोभित कलाधर
ज्योतिमय जिसको बनाता।
‘मेघ’ जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
यक्ष पुनः प्रयाण के अनु-
कूल कहते मार्ग सुखकर,
फिर बताता किस जगह पर
किस तरह का है नगर, घर,
किस दशा, किस रूप में है
प्रियतमा उसकी सलोनी,
किस तरह सूनी बिताती
रात्रि, कैसे दीर्घ वासर,
क्या कहूँगा, क्या करूँगा,
मैं पहुँचकर पास उसके;
किन्तु उत्तर के लिए कुछ
शब्द जिह्वा पर न आता।
‘मेघ’ जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
मौन पाकर यक्ष मुझको
सोचकर यह धैर्य धरता,
सत्पुरुष की रीति है यह
मौन रहकर कार्य करता,
देखकर उद्यत मुझे
प्रस्थान के हित, कर उठाकर
वह मुझे आशीष देता-
‘इष्ट देशों में विचरता,
हे जलद, श्रीवृद्धि कर तू
संग वर्षा-दामिनी के,
हो न तुझको विरह दुख जो
आज मैं विधिवश उठाता!’
‘मेघ’ जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
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